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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

नेताम ने सच बोला "छत्तीसगढ़ पुलिस लापरवाह है"

पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री एवं सरगुजा के प्रभारी रामविचार नेताम ने वर्षों बाद उस सच को बोल ही दिया, जिसका साहस वो अपने गृहमंत्री के कार्यकाल के दौरान नहीं कर सके.बोलते तो मंत्रालय छीनने का खतरा रहता. इसलिए वो अब जाकर बोले हैं.
प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री ने साफ कर दिया कि शहर में कोयला व्यवसाय गोवर्धन अग्रवाल की हत्या की घटना पुलिस की लापरवाही का नतीजा है. गृहमंत्री ने वही बात कही जिसका ज़िक्र मैंने इस मर्डर पर खबर लिखते वक्त किया था.
रामविचार नेताम के इस बयान के राजनीतिक मतलब निकाले जा रहे हैं.ये सच भी है। इस बयान के राजनीतिक मायने भी हैं.लेकिन उससे भी बड़ा सच ये है कि ये पूरी तरह से पुलिस के नकारेपन और उसकी संवेदनहीनता से जुड़ा है.जिस शहर में चोरी भी नहीं होती थी वहां आजकल भाड़े के टट्टुओं- जिन्हें शूटर कहा जाता है- से लोगों का काम तमाम करवाया जा रहा है और पुलिस ऐसे अपराधों को न रोक पा रही है न अपराधियों को पकड़ पा रही है. सवाल बहुत बड़ा है कि वारदात को अंजाम देने के बाद अपराधी फरार कैसे हो गए जबकि शहर से बाहर जाने के रास्ते गिनती के हैं. और छिपने के ठिकाने भी नहीं हैं.
लिहाज़ा ये मामला बेहद संजीदा है और गुनेहगारों का पकड़ा जाना बेदह ज़रूरी है. ये मसला कोई आज नहीं खड़ा हुआ है.शहर में अराजकता की शुरुआत लाल बाबू सिंह की हत्या से हुई. ये सिलसिला आगे बढ़ा उनके साले जगमोहन की हत्या और फिर दिल दहला देने वाले डबल मर्डर से. अगर इन तीनों हत्याकांड में पुलिस दोषियों को कड़ी सज़ा दिलवाती तो हत्याओं का ये सिलसिला शायद थम जाता. पर पुलिस ऐसा कर नहीं सकी.
दरअसल सरगुजा पुलिस के पास काम का बोझ कुछ ज्यादा है. मसलन बेगुनाहों को अंदर करना, शरीफ लोगों को परेशान करने का और जो इनसे वक्त बचता है वो नेताओं और मंत्रियों की खातिरदारी में चला जाता है. अब पुलिस तो अपराधियों को तब पकड़े जब इन कामों से फुर्सत मिले.
आज शहर में जितने पुलिस वाले हैं सबकी अपनी अपनी कोठियां हैं. तब से जब उनकी तनख्वाह 10 हजार रूपये महीना भी नहीं थी.ये कोठियां कैसे बनी अधिकारियों ने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की.
वैसे पुलिस के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है. अभी तक तो पुलिस का रौब आम लोगों पर चलता रहा है लेकिन अगर कहीं अपराधियों से इनका पाला पड़ गया और अपराधी इन पर भारी पड़ गए तो ये पुलिस वाले भाग भी नहीं पाएगें. मेहनत की पुलिसिया नौकरी में पुलिस वाले आराम फरमाते हैं और खूब खाते हैं. इसलिए वो फिट नहीं हैं. किसी भी थाने में चले जाईये.सिपाही से लेकर दरोगा तक सबकी तोंद निकल चुकी है. अब ऐसी पुलिस कहां अपराधियों पर नकेल कस सकेगी.
नेताम ने जो कहा है बिल्कुल सच कहा है लेकिन सवाल ये है कि जब वो गृहमंत्री थे तब उन्होंने पुलिसिंग को सुधारने के लिए क्या किया. किया होता तो आज ये बोलने की नौबत नहीं आती.

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